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हरिताचल की शाब्दीक भेंट सीधी बात ना लाग लपेट 


चहकती चिडीया ने, लहकती नदीया ने, महकतीै बगीया ने  पुछा है खुदा से बार बार ।
कहॉ है आज  पर्यावरण का ठेकेदार, 
 नही दिखता धरा को लाल करने वाला 
प्राणीयो की सरकार ।
हम बेज़बान  पर करता था अटाह्स,  फिरता था बदहवास 


हम बेज़बान भी नियती की देन थे,  हम भी प्राणीयो की चेन थे ।
निज हित का चढा बुखार था,  केसा हे मानव तेरा व्यापार था। 
धुं-धुं करते ये जगलं  मन्द कर दी पानी की कल -कल , 
धन की क्यु थी इतनी भुख, सर्व स्रस्टी का बदला  तुने रूप ।
 आज क्यु है अपने घोसलो मे छुपा,बनआई जब जान पर तो तेरा फरसा  रुका ।
समझ आ गई होगी तेरी खुद की कथनी।
"खुदा के घर देर है अन्धेर नही ।


छीनी थी पेडो की तुने हरियाली,  लाने को घर अपने मे खुशहाली ।
नीर जो बहता था अपने अल्हड़पन से,  छीना उसका स्वभाव अपने करम से ।


कहां है तेरे साधन की पी-पी,  दबती थी जिससे अपनी भी, चीं-ची ।


 हर तरफ आज पसरा सन्नाटा है,  लगता है मानव आज डर से धनधनाता है 
छीनने वाला जीवन लीला बेजुबान की ,उड गई चेहरे की मुस्कान सी ,
खुदा का कटघरा बन गया हवेली बियबान सी 
। वाह रे मानव तेरी ठकुराई,
लजा दी खुदा की भी खुदाई।
 
हरित हरित सी ये धरा थी 
नीला नीला ये गगन 
हर तरफ प्रदुषण 
दिखती थी मन मे अगन 


हे प्राणीयो के सरमायदार,  
ना भुल खुदा की है सरकार ।


शिर्षक - हे धरा के सर्व बलवान प्राणी 
ये पर्यावरण स्रटी के रचीयता की देन है ।
सबका समान अधिकार हों,  


हे मानव बडप्पन का रुप दिखा ।
पालन कर जीवो का ना अपना रोब जमा।


हरिताचंल की ओर से जन हित मे जारी